सेढाई वंश

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Rishi Aangira:-

Angiras: ५८३.उषो भद्रेभिरा गहि दिवश्चिद्रोचनादधि । वहन्त्वरुणप्सव उप त्वा सोमिनो गृहम् ॥१॥ हे देवी उषे! द्युलोक के दीप्तिमान स्थान से कल्याणकारी मार्गो द्वारा आप यहाँ आयें। अरुणिम वर्ण के अश्व आपको सोमयाग करनेवाले के घर पहुँचाएँ॥१॥ ५८४.सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम् । तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः ॥२॥ हे आकाशपुत्री उषे ! आप जिस सुन्दर सुखप्रद रथ पर आरूढ़ है, उसी रथ से उत्तम हवि देने वाले याजक की सब प्रकार से रक्षा करें॥२॥ ५८५.वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि । उषः प्रारन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥३॥ हे देदीप्यमान उषादेवि! आपके आकाशमण्डल पर उदित होने के बाद मानव पशु एवं पक्षी अन्तरिक्ष मे दूर दूर तक स्वेच्छानुसार विचरण करते हुए दिखायी देते हैं॥३॥ ५८६.व्युच्छन्ती हि रश्मिभिर्विश्वमाभासि रोचनम् । तां त्वामुषर्वसूयवो गीर्भिः कण्वा अहूषत ॥४॥ हे उषादेवी ! उदित होते हुए आप अपनी किरणो से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करती हैं। धन की कामना वाले कण्व वंशज आपका आवाहन करते हैं॥४॥ ५६७.सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः । सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती ॥१॥ हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों, अर्थात हमे आपका अनुदान- अनुग्रह होता रहे॥१॥ ५६८.अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे । उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम् ॥२॥ अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें॥२॥ ५६९.उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् । ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥३॥ जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं॥३॥ ५७०.उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः । अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम् ॥४॥ हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं॥४॥ ५७१.आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती । जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः ॥५॥ उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है॥५॥ ५७२.वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती । वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति ॥६॥ देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते॥६॥ ५७३.एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि । शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान् ॥७॥ हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं॥७॥ ५७४.विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी । अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः ॥८॥ सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं॥८॥ ५७५.उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः । आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु ॥९॥ हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें॥९॥ ५७६.विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि । सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम् ॥१०॥ हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें॥१०॥ ५७७.उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने । तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः ॥११॥ हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें॥११॥ ५७८.विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम् । सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम् ॥१२॥ हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें॥१२॥ ५७९.यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत । सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥१३॥ जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें॥१३॥ ५८०.ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि । सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥१४॥ हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें॥१४॥ ५८१.उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः । प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः ॥१५॥ हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें॥१५॥ ५८२.सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा । सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति ॥१६॥ हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें॥१६॥ ४११.ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे । ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥१॥ कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्यदेव का हम अपनी रक्षा के लिए आवाहन करते है॥१॥ ४१२.आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥२॥ सवितादेव गहन तमिस्त्रा युक्त अंतरिक्ष पथ मे भ्रमण करते हुए, देवो और मनुष्यो को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मो मे नियोजित करते है। वे समस्त लोकों को देखते(प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणो से युक्त) रथ से आते है॥२॥ ४१३.याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् । आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥३॥ स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हे निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट कररे हुए अतिदूर से उस यज्ञशाला मे श्वेत अश्वो के रथ पर आसीन होकर आते हैं॥३॥ ४१४.अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् । आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥४॥ सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपो मे सुशोभित, पूजनिय,अद्भूत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आतें हैं॥४॥ ४१५.वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः । शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥५॥ सूर्यदेव के अश्व श्वेत पैर वाले है, वे स्वर्णरथ को वहन करते है और मानवो को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोको के प्राणी सवितादेव के अंक मे स्थित है अर्थात उन्ही पर आश्रित है॥५॥ ४१६.तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् । आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥६॥ तीनो लोंको मे द्यावा और पृथिवी ये दोनो लोक सूर्य के समीप है अर्थात सूर्य से प्रकाशित है। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धूरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित है। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें॥६॥ ४१७.वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥७॥ गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्यदेव अंतरिक्षादि हो प्रकाशित करते हैं। ये सूर्यदेव कहां रहते है ? उनकी रश्मियां किस आकाश मे होंगी ? यह रहस्य कौन जानता है?॥७॥ ४१८.अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् । हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥८॥ हिरण्य दृष्टि युक्त(सुनहली किरणो से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठो दिशाओ, उनसे युक्त तीनो लोको, सप्त सागरो आदि को आलोकित करते हुए दाता(हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियां लेकर यहां आएं॥८॥ ४१९.हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥९॥ स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथो से युक्त विलक्षण द्रष्टा सवितादेव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते है। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकारनाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं॥९॥ ४२०.हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् । अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥ हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणो से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्यगुण सम्पन्न सूर्यदेव सम्पूर्ण मनुष्यो के समस्त दोषो को, असुरो और दुष्कर्मियो को नष्ट करते(दूर भगाते) हुए उदित होते है। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हो॥१०॥ ४२१.ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे । तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥११॥ हे सवितादेव! आकाश मे आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित है। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें॥११॥ ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३४ ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -अश्विनीकुमार । छन्द - जगती, ९,१२ त्रिष्टुप ३९९.त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वां याम उत रातिरश्विना । युवोर्हि यन्त्रं हिम्येव वाससोऽभ्यायंसेन्या भवतं मनीषिभिः ॥१॥ हे ज्ञानी अश्विनीकुमारो! आज आप दोनो यहां तीन बार(प्रातः,मध्यान्ह,सायं) आयें। आप के रथ और दान बड़े महान है। सर्दी की रात एवं आतपयुक्त दिन के समान आप दोनो का परस्पर नित्य सम्बन्ध है। विद्वानो के माध्यम से आप हमे प्राप्त हों॥१॥ ४००.त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः । त्रय स्कम्भास स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥ मधुर सोम को वहन करने वाले रथ मे वज्र के समान सुदृढ़ पहिये लगे हैं। सभी लोग आपकी सोम के प्रति तीव्र उत्कंठा को जानते है। आपके रथ मे अवलम्बन के लिये तीन खम्बे लगे हैं। हे अश्विनीकुमारो ! आप उस रथ से तीन बार रात्री मे और तीन बार दिन मे गमन करते है॥२॥ ४०१.समाने अहन्त्रिरवद्यगोहना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् । त्रिर्वाजवतीरिषो अश्विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ॥३॥ हे दोषो को ढंकने वाले अश्विनीकुमारो! आज हमारे यज्ञ मे दिन मे तीन बार मधुर रसों से सिंचन करें। प्रातः , मध्यान्ह एवं सांय तीन प्रकार के पुष्टिवर्धक अन्न हमे प्रदान करें॥३॥ ४०२.त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम् । त्रिर्नान्द्यं वहतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम् ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो! हमारे घर आप तीन बार आयें। अनुयायी जनो को तीन बार सुरक्षित करें उन्हे तीन बार तीन विशिष्ट ज्ञान करायें। सुखप्रद पदार्थो को तीन बार हमारी ओर पहुंचाये। बलप्रदायक अन्नो को प्रचुर परिमाण मे देकर हमे सम्पन्न करें॥४॥ ४०३.त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः । त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो हमारे लिए तीन बार धन इधर लायें। हमारी बुद्धि को तीन बार देवो की स्तुति मे प्रेरित करें। हमे तीन बार सौभाग्य और तीन बार यश प्रदान करें। आपके रथ मे सूर्य पुत्री (उषा) विराजमान हैं॥५॥ ४०४.त्रिर्नो अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भ्यः । ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती ॥६॥ हे शुभ कर्मपालक अश्विनीकुमारो ! आपने तीन बार हमे(द्युस्थानीय) दिव्य औषधियां, तीन बार पार्थिव औषधियां तथा तीन बार जलौषधियां प्रदान की हैं। हमारे पुत्र को श्रेष्ठ सुख और संरक्षण दिया है और तीन धातुओ(वात-पित्त-कफ) से मिलने वाला सुख, आरोग्य एवं ऐश्वर्य प्रदान किया है॥६॥ ४०५.त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम् । तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम् ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो! आप नित्य तीन बार यजन योग्य हैं। पृथ्वी पर स्थापित वेदी के तीन ओर आसनो पर बैठें। हे असत्यरहित रथारूढ़ देवो ! प्राणवायु और आत्मा के समान दूर स्थान से हमारे यज्ञो मे तीन बार आयें॥७॥ ४०६.त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम् । तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम् ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो! सात मातृभूत नदियो के जलो से तीन बार तीन पात्र भर दिये है। हवियो को भी तीन भागो मे विभाजित किया है। आकाश मे उपर गमन करते हुए आप तीनो लोको की दिन और रात्रि मे रक्षा करते हौं॥८॥ ४०७.क्व त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः । कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः ॥९॥ हे सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! आप जिस रथ द्वारा यज्ञस्थल मे पहुंचते है, उस तीन छोर वाले रथ के तीन चक्र कहां है ? एक ही आधार पर स्थापित होने वाले तीन स्तम्भ कहां है ? और अति शब्द करने वाले बलशाली(अश्व या संचालक यंत्र) को रथ के साथ कब जोड़ा गया था ?॥९॥ ४०८.आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः । युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥१०॥ हे सत्यशील अश्विनीकुमारो ! आप यहां आएं। यहां हवि की आहुतियां दी जा रही हैं। मधु पीने वाले मुखों से मधुर रसो का पान करें। आप के विचित्र पुष्ट रथ को सूर्यदेव उषाकाल से पूर्व, यज्ञ के लिए प्रेरित करते है॥१०॥ ४०९.आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना । प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा ॥११॥ हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो तैंतीस देवताओ सहित हमारे इस यज्ञ मे मधुपान के लिए पधांरे। हमारी आयु बढा़ये और हमारे पापो को भलीं-भांति विनष्ट करें। हमारे प्रति द्वेष की भावना को समाप्त करके सभी कार्यो मे सहायक बने॥११॥ ४१०.आ नो अश्विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम् । शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥१२॥ हे अश्विनीकुमारो! त्रिकोण रथ से हमारे लिये उत्तम धन-सामर्थ्यो को वहन करें। हमारी रक्षा के लिए आवाहनो को आप सुने। युद्ध के अवसरो पर हमारी बल-वृद्धी का प्रयास करें॥१२॥ ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३३

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]

३८४.एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति । अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥ गौऔ को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें। ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनो को बढा़ने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओ की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगें॥१॥ ३८५.उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि । इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्य स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥ श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले मे जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुंचकर स्तोत्रो से उनका पूजन करते है। युद्ध मे सहायता के लिए स्तोताओ द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुंचते है॥२॥ ३८६.नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि । चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥ सब सेनाओ के सेनापति इन्द्रदेव तरकसो को धारण कर गौओ एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने मे आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें॥३॥ ३८७.वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र । धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥ हे इन्द्रदेव! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान दस्यु वृत्र का वध किया। जब उसके अनुचरो ने आपके उपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवो को आपने दृढ़तापूरवक नष्ट कर दिया ॥४॥ ३८८.परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभि स्पर्धमानाः । प्र यद्दिवो हरिव स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥ हे इन्द्रदेव! याजको से स्पर्धा करनेवाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठित इन्द्रदेव! आप युद्ध मे अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले है। आपने आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-व्रतहीनो को हटा दिया है॥५॥ ३८९.अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः । वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥ उन शत्रुओ ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुये वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये॥६॥ ३९०.त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे । अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत स्तुवतः शंसमावः ॥७॥ हे इन्द्रदेव! आपने रोने या हंसने वाले इन शत्रुओ को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊंचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करनेवालो और प्रशंसक स्तोताओ की रक्षा की॥७॥ ३९१.चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः । न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥ उन शत्रुओ ने पृथ्वी के उपर पना आधिपत्य स्थापित किता और स्वार्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध मे ठहर ना सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हे दूर कर दिया गया॥८॥ ३९२.परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् । अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥ हे इन्द्रदेव! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारो ओर से उपयोह किया। हे इन्द्रदेव~ आपने अपने अनुचरो द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र शक्ति से(ज्ञान पूर्वक किये गये प्रयासो से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥ ३९३.न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥ मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलो के अभाव से भूमी श्स्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपी मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया॥१०॥ ३९४.अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् । सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥ जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिये (मेघो से) बरसने लगे। उस समय नौकाओ के मार्ग पर (जलो मे) वृत्र बढ़ता रहा। इन्द्रदेव ने अपने शक्ति साधनो द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि मे ही उस वृत्र को मार गिराया॥११॥ ३९५.न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः । यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥ इन्द्रदेव ने गुफा मे सोये हुए वृत्र के किलो को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया॥१२॥ ३९६.अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् । सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥ इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओ को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओ को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए॥१३॥ ३९७.आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥ हे इन्द्रदेव! ’कुत्स’ ऋषि के प्रति सेन्ह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओ के साथ युद्ध करबे वाले श्रेष्ठ गुणवान ’दशद्यु’ ऋषि की भी आपने रक्षा की। उस सहमय अश्वो के खुरो से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल मे छिपने वाले ’श्वैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला॥१४॥ ३९८.आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् । ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥ हे धनवान इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल-प्रवाहो मे घिरने वाले ’श्वित्र्य’(व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहीं जलो मे ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओ से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओ को जलो के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुंचायी॥१५॥ ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३२

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]

३६९.इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥ मेघो को विदिर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतिय नदियो ले तटो को निर्मित करने वाले वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय है। उन्होने जो प्रमुख वीरतापूरण कार्य किये , वे ये ही हैं॥१॥ ३७०.अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष । वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥ इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघो को विदिर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुयी गौओ के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये॥२॥ ३७१.वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य । आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥ अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ मे तीन विशिष्ट पात्रो मे अभिषव किये हुये सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघो मे प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया॥३॥ ३७२.यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः । आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने मेघो मे प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप मे छाये धुन्ध(मायावियो) को दूर किया, फिर आकाश मे उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा॥४॥ ३७३.अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन । स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥ इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओ को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओ को काटा ऐर तने की तरह इसे काटकर भूमि पर गिरा दिया॥५॥ ३७४.अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् । नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥ अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर गिरते हुये नदियो के किनारो को तोड़ दिया॥६॥ ३७५.अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥७॥ हाथ और पांव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धो पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वह वर्षा करने मे समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा रहा। अन्ततः इन्द्रदेव के आघातो से ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पड़ा॥७॥ ३७६.नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥ जैसे नदी की बाढ़ तटो को लांघ जाती है है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल(जल अवरोधक) वृत्र को लांघ जाते है। जिन जलो को ’वृत्र’ ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्ही के नीचे ’वृत्र’ मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥ ३७७.नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार । उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥ वृत्र की माता शुककर वृत्र का संरक्षण करने लगी, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी. फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उससमय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥ ३७८.अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् । वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥ एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रांत (मेघरुप) जल-प्रवाहो के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दिर्घ निद्रा मे पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है॥१०॥ ३७९.दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥ ’पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणो को अवरूद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहो को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध कर वे प्रवाह खोल दिये गये॥११॥ ३८०.अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः । अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥ हे इन्द्रदेव! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने के तरह , बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओ को जीतकर आपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट कर) गंगादि सरिताओ को प्रवाहित किया॥१२॥ ३८१.नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च । इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥ युद्ध मे वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को रोक नही सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध मे असुर के कर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया॥१३॥ ३८२.अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् । नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥ हे इन्द्रदेव! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय मे भय उत्पन्न होता तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? ऐसा करके आपने निन्यानबे (लगभग सम्पूर्ण) जल प्रवाहो को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया॥१४॥ ३८३.इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः । सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥ हाथो मे वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पधु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियो के राजा है। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारो ओर उसी प्रकार रहते है, जैसे चक्र की नेमि के चारो ओर उससे ’अरे’ होते है॥१५॥ ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३१

[ऋषि -हिरण्यस्तूप अंङ्गिरस। देवता- अग्नि। छन्द जगती ८,१६,१८ त्रिष्टुप।]

३५१.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा । तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥१॥ हे अग्निदेव! आप सर्वप्रथम अंगिरा ऋषि के रूप मे प्रकट हुये, तदनन्तर सर्वद्रष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवो के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरूद गण क्रान्तदर्शी कर्मो के ज्ञाता और श्रेष्ठ तेज आयुधो से युक्त हुये है॥१॥ ३५२.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् । विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥ हे अग्निदेव! आप अंगिराओ मे आद्य और शिरोमणि है। आप देवताओ के नियमो को सुशोभित करते है। आप संसार मे व्याप्त तथा दो माताओ वाले दो अरणियो से समुद्भूत होने से बुद्धिमान है। आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं॥२॥ ३५३.त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते । अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥ हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी कांप गये। होता रूप मे वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का संपादन किया। देवो का यजनकार्य पूर्ण करने के लिये आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥ ३५४.त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः । श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥ हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले है। आपने मनु और सुकर्मा-पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ पितृ रूप दो काष्ठो के मंथन से उत्पन्न हुये, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये॥४॥ ३५५.त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि ॥५॥ हे अग्निदेव! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक है। हविदाता, स्त्रुवा हाथ मे लिये स्तुति को उद्यत है, जो वषटकार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणी पुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित करते है॥५॥ ३५६.त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे । यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥६॥ हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव! आप पापकर्मियो का भी उद्धार करते है। बहुसंख्यक शत्रुओ का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषो को लेकर सब शत्रुओ को मार गिराते है॥६॥ ३५७.त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे । यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥७॥ हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यो को दिनप्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते है, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनो की करते रहते है। वीर पुरुषो को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं॥७॥ ३५८.त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः । ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥८॥ हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमे धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमे यशस्वी पुत्र प्रदान करें। नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें। द्यावा, पृथ्वी और देवगण सब प्रकार से रक्षा करें॥८॥ ३५९.त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः । तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥९॥ हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवो मे चैतन्य रूप आप हमारे मातृ पितृ (उत्पन्न करने वाले) हैं। आप ने हमे बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दी, कर्म को प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित की। हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमे आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें॥९॥ ३६०.त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् । सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥१०॥ हे अग्निदेव! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और बन्धु रूप है। आप उत्तमवीर, अटलगुण सम्पन्न, नियम-पालक और असंख्यो धनो से सम्पन्न है॥१०॥ ३६१.त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् । इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥ हे अग्निदेव! देवताओ ने सर्वप्रथम आपको मनुष्यो के हित के लिये राजा रूप मे स्थापित किया। तपश्चात जब हमारे (हिरण्यस्तूप ऋषि) पिता अंगिरा ऋषि ने आपको पुत्र रूप मे आविर्भूत किया, तब देवतओ ने मनु की पुत्री इळा को शासन-अनुशासन(धर्मोपदेश) कर्त्री बनाया॥११॥ ३६२.त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य । त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥१२॥ हे अग्निदेव! आप वन्दना के योग्य है। आप रक्षण साधनो से धनयुक्त हमारी रक्षा करें। हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें। शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र-पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों॥१२॥ ३६३.त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे । यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम् ॥१३॥ हे अग्निदेव आप याजको के पोषक है, जो सज्जन हविदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान्न देते है, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधको(उपासको) की स्तुति हृदय से स्वीकार करते है॥१३॥ ३६४.त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत् । आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥१४॥ हे अग्निदेव! आप स्तुति करने वाले ऋत्विजो को धन प्रदान करते गौ। आप दुर्बलो को पिता रूप मे पोषण देनेवाले और अज्ञानी जनो को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी है॥१४॥ ३६५.त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः । स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥ हे अग्निदेव! आप पुरुषार्थी यजमानो की कवच रूप मे सुरक्षा करते है। जो अपने घर मे मधुर हविष्यान्न देकर सुखप्रद यज्ञ करता है वह घर स्वर्ग की उपमा के योग्य होता है॥१५॥ ३६६.इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात् । आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥१६॥ हे अग्निदेव! आप यज्ञ कर्म करते समय हुई हमारी भूलों को क्षमा करे, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये है, उन्हे भी क्षमा करें। आप सोमयाग करने वाले याजको के बन्धु और पिता है। सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले ऐर ऋषिकर्म के कुशल प्रणेता है॥१६॥ ३६७.मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे । अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥१७॥ हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! (अंगो मे व्याप्त अग्नि) आप मनु, अंगिरा(ऋषि), ययाति जैसे पुरुषो के साथ देवो को ले जाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों। उन्हे कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुये सम्मानित करें॥१७॥ ३६८.एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा । उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥ हे अग्निदेव! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें। अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यजन किया है, उससे हमे ऐश्वर्य प्रदान करें। बल बढाने वाले अन्नो के साथ शुभ मति से हमे सम्पन्न करें॥१८॥ नोट: सेढाई बन्धुहरु लाई सहयोग होस भनी यो लेख (source) जस्ताको तस्तै अध्यायानको लागि प्रस्तुत छ । सेढाई कन्य कब्जि ब्राम्हण जात: ब्राह्मण (बाहुन) का नेपाली थरहरू उपाध्याय, ढकाल, गौडेल, रेग्मी,घिमिरे, बराल, पौडेल, अधिकारी, गुरागांइ, पोख्रेल, धिताल, चाम्लागांइ, देवकोटा, (चौलागाई) अर्याल, गौतम, तिमील्सिना, त्रिपाठी, न्यौपाने, भट्टराई, दाहाल, कोइराला, नेपाल, खनाल, तिवारी, जैसी , गैरे, भण्डारी, कंडेल,पाण्डे, उप्रेती, आचार्य,सिग्देल, पन्थि, प्याकुरेल, पराजुली, तिमिल्सीना, सेढाई, गौली, कंडेल, उप्रेती, तिवारी, पन्थ, पाठक आदि हुन। नेपालको इतिहास अनुसार भारतको बिभिन्न ठाउँहरू भारत उतराखंडको पिथुरागढ़, कुमाउ, बनारस आदि ठाउँहरू बाट ब्राह्मणहरू (बाहुन)को नेपाल प्रवेश भएको थियो। त्यसकारणले ब्राह्मण(बाहुन) समाजमा आ-आफ्ना पुर्खौली ठाउँको नाम जोडेर बोलाउने चलन छ। स:संवर्त,सत्याल,साङपाङ,सापकोटा,सिंखडा,सिग्देल,सिजापति,सिलवाल,सिवाङ,सुनार,सुयल (घर्ती),सुयल (थापा),सुवेदी,सेढाई,सोडारी

सेढाई र धार्मिक आस्था :- हाम्रा पिता पूर्खा पश्चिम पहाडका बदरी नाथ क्षेत्रको कुमाउ गढवाल बाट आएका र इशभक्तिमा अहोरात्र खटि मठ मंन्दिरका पुजारी,राज ज्योतिष थिए। यसर्थ उनिहरु ओउमकार परिवारका रसधै कला धर्म वंश र परमपरामा यथोचित सम्मानीत भएको तथ्य स्वरुप संम्झना पुन अर्पण गर्दे भावि पुस्तामा जानकारी राख्दछु।उहाहरुले अपनत्तोव्त राखेको तिथि परम्परा यस प्रकार थिए । तिथि _चन्द्रमाको कला_:-

चन्द्रमाको कला नाप्ने इकाइलाई तिथि भनिन्छ ।एक तिथिको कोणिय दुरी १२ डिग्रीको आकाशीय क्षेत्र पर्न आउँछ । एक चान्द्र महिनामा ३० वटा तिथि छन् । साधारणतय एक तिथिको समय पृथ्वीको गति अनुसार चन्द्रकलाको भोगकाल ६० घडी (२४ घण्टा) निर्धारण गरिएको छ । तापनि चन्द्रमा सूर्य र पृथ्वीको आ–आफ्नै किसिमको गति अनुसार स्थितिमा आउने कोणिय फरक को कारणबाट कलाको समयमा अन्तर आएको हो । सो अनुसार तिथिको समयमा फरक ११ घडीसम्म पर्न आउँछ । खगोलिए पिण्डको नियमित गति अनुसार चन्द्रमाको कला मध्यदिन, मध्यरात अथवा जुनसुकै समयमा पनि बदलिन सक्छ । गणितिय पक्षबाट तिथिको भोगकाल जे जस्तो समयमा भए पनि सूर्योदय भएको समयमा जुन तिथिको कला रहन्छ, उही समयदेखि उक्त तिथिमा गरिने कर्मकाण्ड, पूजा आराधना आदि गर्ने परम्परा छ । कलाको हिसाबले तिथिको समय समाप्त भै सकेपछि पनि उक्त तिथिमा पूजा, आराधना तथा उपवास, व्रत आदि गरिरहेका हुन्छौ । नारद पुराण अनुसार हरेक तिथिमा गरिने सकाम कर्म (काम्य कर्म)हरु कुन कलामा कुन कुन देवी तथा देवताहरुको पूजा आराधना गर्ने भन्ने विषयमा निम्न अनुसार वर्णन गरिएको छ । परेवा तिथि:- चैत्र महिनाको शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथिमा सूर्यदयको सँगसगै ब्रहाले जगतको सृष्टि गर्न सुरु गरे । प्रतिपदामा ब्रहामाको पूजा गर्ने । जेष्ठ महिनाको शुक्ल प्रतिपदामा कनेर रुखको पूजा गर्ने । आश्विन शुक्ल प्रतिपदामा असोक वृक्षको पूजा गर्ने । चैत्र महिनाको शुक्ल दितियमा ब्राही शक्तिको साथ ब्रहाको पूजा गर्ने । बैशाख शुक्ल तृतिया (अक्षय तृतिया) मा लक्ष्मी सहित जगत गुरु भगवान विष्णुको पूजा आरधना गर्ने । चैत्र महिनाको चतुर्थी तिथिमा वासुदेव स्वरुपका श्री गणेशको पूजा, आरधना गर्ने । सबै महिनाको चतुर्थी तिथिमा गणेशको पूजा गर्दा कल्याणदायक हुने छ । चैत्र शुकल पक्षको पंञ्चमी तिथिलाई मत्स्य जयन्ती भनिन्छ । यहि तिथिमा मत्स्य अवतार भएको हो । यसलाई श्रीपंञ्चमी पनि भनिन्छ । लक्ष्मी र शेषनागको पूजा, वन्दना गर्ने । बैशाख पंञ्चमी तिथिमा नागगण सहित शेषनागको पूजा, स्तुति गर्ने हरेक महिनाको शुक्ल पक्ष र कृष्ण पक्षका पंञ्चमीमा पितृ र नागको पूजा गर्नु कल्याणकारी हुन्छ षष्टी तिथि:- चैत्र महिनाको शुक्ल षष्टी र बैशाख महिनाको शुक्ल षष्टीमा भगवान षडानन् (कार्तिकेय) कुमारको व्रत गर्नुृ पर्छ । जेष्ठ शुक्ल षष्टीमा सूर्य भगवानको पूजा गर्ने , आषाढ शुक्ल षष्टीमा स्कन्दव्रत (गणेश) को पूजा गर्ने, भाद्र महिनाको षष्टीलाई चन्दन षष्टी मानिएको छ । यसमा देवीको पूजा गर्ने । आश्विन शुक्ल षष्टीमा कात्यानी देवीको पूजा गर्ने । मार्ग शुक्ल षष्टीलाई चम्पाषष्टी पनि भनिन्छ । भगवान विश्वेश्वरको पूज ागर्ने । पौष शुक्ल षष्टीमा भगवान दिनेश उत्पति भएका हुन् । माघ शुक्ल षष्टीलाई वरुण षष्टी भनिन्छ । भगवान विष्णु स्वरुप वरुण देवताको पूजा गर्ने ।फाल्गुन शुक्ल षष्टीमा भगवान पशुपतिको मृणमयी मूर्ति बनाएर पूजा गर्ने । वर्ष भरिको सम्पूर्ण सप्तमी तिथिमा सूर्य भगवानको पूजा, आरधना गर्ने गरिन्छ । अष्टमी तिथि चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि दुर्गा भवानीको जन्म दिन हो । रात्रीमा देवीको पूजा गर्ने विधान भएको हुनाले उक्त दिनलाई महाअष्टमी पनि भनिन्छ । बैशाख शुक्ल अष्टमीमा अपराजित देवीको पूजा गर्नु । जेष्ट कृष्ण पक्ष अष्टमीमा भगवान त्रिलोचन को पूजा ,आरधना गर्नु । जेष्ट शुक्ल अष्टमीमा देवीको पूजा गर्नु । असार शुक्ल अष्टमीमा वेसार मिसाएको पानीले नुहाउनु , देवीलाई पनि नुहाइदिनु, मौन भोजन गर्नु । श्रावण शुक्ल अष्टमीमा देवीलाई यजन गरेर दुधले नुहाउनु । श्रावण कृष्ण अष्टमी देखि औंसि सम्म दशाफल नामक व्रत गरिन्छ । उपवास व्रतका शंकल्प पछि कालीतुलसीको दश वटा पातबाट कृष्णाय नम, विस्णवे नम, अनन्ताय नम, गोविन्दाय नम, गरुड ध्वजाय नम, दामोदराय नम, ऋषि केशाय नम, पद्यनाभाय नम, हरेय नम, प्रभवे नम, आदि नामको उच्चारण गर्दै हरेक दिन श्री कृष्ण को पूजा आरधना गर्नु । यो व्रत दश वर्ष सम्म निरन्तर गर्दा कल्याणदायक हुन्छ । श्री कृष्ण जन्मअष्टमीको जस्तो ठूलो व्रत अरु कुनै छैन । भाद्र शुक्ल अष्टमीमा राधाको व्रत गर्नु । यसलाई दुर्वा अष्टमीव्रत पनि भनिन्छ । यही तिथि देखि १६ दिन सम्म महालक्ष्मीको व्रत गर्नु । पूजा आश्विन कृष्ण अष्टमी सम्म रहन्छ । आश्विन शुक्ल अष्टमीलाई महाअष्टमी भनिन्छ । यसमा दुर्गाको पूजा गर्ने विधान छ । कात्र्तिक कृष्ण पक्षको अष्टमीलाई कर्काष्टमी भनिन्छ । यो तिथिमा भगवान शंकरको पूजा गर्नु । मार्ग कृष्ण अष्टमीलाई अनुधा अष्टमी भनिन्छ । अनध र अनुधा (पति, पत्नी) को प्रतिमा बनाएर पूजा गर्नु उत्तम पुत्र प्राप्त हुन्छ । मार्ग शुक्लाष्टमी मा काला भैरवको पूजा गर्नु । पौष शुक्ल अष्टमीमा गरीएको अष्टकासंज्ञक श्राद्धले पितृलाई एक वर्ष सम्म सन्तुष्ट गराउछ , शिवको पूजा गर्नु । माघ कृष्ण अष्टमीमा भद्रकाली देवीको पूजा गर्नु । माघ शुक्ल अष्टमीमा भिष्मलाई तर्पण गर्नु । फाल्गुण कृष्ण अष्टमीमा भिमा देवीको पूजा गर्नु, विधि पुर्वक शिव र पार्वतिको पूजा गर्नु । नवमी तिथि:- चैत्र शुक्ल नवमीमा भगवान श्रीरामाको पूजा, आरधना गरिन्छ । बैशाखको दुवै पक्षको नवमी चण्डीका देवीको पूजा गर्नु । जेष्ठ शुक्ल नवमीमा उमा देवीको पूजा गर्नु । असारको दुवै पक्षको नवमी को रातमा हतियारमा सवार भएकी शुक्ल वर्ण इन्द्राणी देवीको पूजा गर्नु । श्रावण महिनाको दुवै पक्षको नवमीमा कौमारी चन्द्रीकाको पूजा गर्नु । भाद्र शुक्ल नवमीलाई नन्दा नवमी भनिन्छ । दुर्गा देवीको पूजा गर्नु । कात्र्तिक शुक्ल नवमीलाई अक्षय नवमी भनिन्छ । यो तिथिमा पिपलको फेदमा बसेर देवता , ऋषि र पितृ लाई विधि पूर्वक तर्पण गर्नु , सूर्य लाई अध्र्य दिनु । ब्राह््मण भोजन गराउनु । मार्ग शुक्ल नवमीलाई नन्दिनी नवमी भनिन्छ, जगदम्बा भवानीको पूजा गर्नु । पौष शुक्ल नवमीमा महामायाको पूजा गर्नु । माघ शुक्ल नवमीलाई महानन्दा भनिन्छ । यसमा गरेका सम्पूर्ण कर्मको फल अक्षय हुन्छन्, आनान्द भगवानको पूजा गर्नु । दशमी तिथि:- चैत्र शुक्ल दशमीमा धर्मराजको पूजा गर्नु । विष्णु भगवानको पनि पूजा गरिन्छ , नदीहरुमा जहनु सर्वश्रेष्ठ नदी हो । जहनु पुत्री (गंगा) जेष्ठ शुक्ल दशमीमा पृथ्वीमा आएकी हुन, यसलाई दशहरा भनिन्छ । जेष्ठ शुक्ल पक्ष, हस्ता नक्षत्र बुधवार, दशमी तिथि गरकरण, आनान्द, व्यातिपात योगहरु कन्या राशिमा चन्द्रमा, वृर्ष राशिमा सूर्य यी दश योगलाई महान पूण्यमयी मानिएको छ । दश योगबाट भएको दशमी तिथिलाई दशहरा भनिन्छ । दशहरामा गंगा नदीमा स्नान गर्नु । श्रावण शुक्ल दशमी सम्पुर्ण आशा र कामनाहरुको पुरा गर्ने हुन । भगवान शंकरको पूजा गर्नु । भाद्रपद शुक्ल दशमीमा दशावतार व्रत गरिन्छ । मत्स्य, कूर्म। बराह, नृसिह, त्रिविक्रम(बामन), परशुराम, राम, कृष्ण, वुद्ध, कल्की अवतारहरुको सुनको मुर्ति बनाएर विधि पूर्वक पूजा गर्नु । आश्विन शुक्ल दशमीलाई विजय दशमी भनिन्छ । राम, लक्ष्मण, भरत र शत्रुधन को पूजा गर्नुृ । कार्तिक शुक्ल दशमीमा सार्वभौम व्रत गर्नु, गणेशको पूजा गर्नु । मार्ग शुक्ल दशमीमा आरोग्य व्रतको आचरण गर्नु । पौष शुक्ल दशमीमा विश्व देवताको पूजा गर्नु । विश्व देवता दश छन । क्रतु, दक्ष, वसू, सत्य, काल, काम, मुनि, गुरु, विप्र, राम आदि हुन । माघ शुक्ल दशमीमा अंगिरा आदि दश देवताको पूजा गर्नु । अंगिरा दश छन(आत्मा, आयु, मन, दक्ष, मद, प्राण, वहिषर््मान, गबिष्ट, दत्त, सत्य हुन । फाल्गुण शुक्ल दशमीमा चौध यमहरुको पूजा गर्नु । यमहरु क्रमश यम, धर्मराज, मृत्यु अन्नत, वैवस्वत, काल,सर्व भूत , क्षय, औदुम्बर, दघ्न, नील, परमेष्टी, वृकोदर, चित्र र चित्रगुप्त आदि हुन । एकादशी तिथि:- दुवै पक्षको एकादशीमा निराहार रहेर एकाग्र चित्त भई विभिन्न प्रकारको फुलमालाले सजि सजाउ भएको मण्डप बनाउनु । स्नान, उपवास, र इन्द्रिय संयम पूर्वक श्रद्धा र एकाग्रचित्त भई विभिन्न प्रकारको उपचार, जप, होम, प्रदछिण, स्तोत्रपाठ, दण्डवत प्रणाम का साथै मनमा लमाइलो लाग्ने जय जयकार शब्दबाट श्री विष्णु भगवानको पूजा आरधना गर्नु र रातमा जाग्रम बस्नु । चैत्र शुक्ल एकादशीको व्रत र द्धादशीमा बासुदेवको पूजा गर्नु । बैशाख कृष्ण एकादशीको नाम वरुथिनी हो । भगवान मधुसूदनको पूजा गर्नु । जेष्ट कृष्ण एकादशीलाई अपरा भनिन्छ । भगवान त्रिविक्रमको पूजा गर्नु । जेष्ट शुक्ल एकादशीलाई निर्जला भनिन्छ । भगवान ऋषिकेशको पूजा गर्नु । आषाढ कृष्ण एकादशीलाई योगिनी भनिन्छ । भगवान नारायणको पूजा गर्नु । आषाढ शुक्ल एकादशीमा भगवान विष्णुको पुना गर्नु । श्रावण कृष्ण एकादशीलाई कामीका भनिन्छ । भगवान श्रीधरको पूजा गर्नु । कामनाहरुको व्रतलाई कामीका भनीएको हो । श्रावण शुक्ल एकादशी लाई पुत्रदा भनिन्छ । भगवान जनार्दनको पूजा गर्नु । भाद्र कृष्ण एकादशीलाई अजा भनिन्छ । भगवान उपेन्द्रको पूजा गर्नु । भाद्र श्ुक्ल एकादशीलाई पद्य भनिन्छ । भगवान बामनको पूजा गर्नु । आश्विन कृष्ण एकादशीलाई इन्द्रिरा भनिन्छ । भगवान पद्यनाभको पूजा गरिन्छ । आश्विन शुक्ल एकादशीलाई पापा۪ड्ढुश भनिन्छ । भगवान विष्णुको पूजा गरिन्छ । कात्र्तिक कृष्ण एकादशीलाई रमा भनिन्छ । भगवान केशवको पूजा अर्चना गर्नु । कात्तिक शुक्ल एकादशीलाई प्रबोधिनी भनिन्छ । भगवान श्रीदामोदर को पूजा गर्नु । मार्गकृष्ण एकादशीलाई उत्पन्न भनिन्छ । भगवान श्रीकृष्णको पूजा गर्नु । मार्गशुक्ल एकादशीलाई मोक्षदा भनिन्छ । भगवान अनन्तको पूजा गर्नु । पौष कृष्ण एकादशीलाई सफला भनिन्छ । भगवान अच्यूतको पूजा गर्नु । पौष शुक्ल एकादशीलाई पूत्रदा भनिन्छ । सुदर्शन चक्रधारी विष्णुको पूजा गर्नु ।माघ कृण्ष्ण एकादशीलाई षढतिला भनिन्छ , भगवान वैकुण्डको पूजा गर्नु । माघ शुक्ल एकादशीको नाम जया हो । भगवान श्रीपतिको पूजा गर्नु । फाल्गुण कृष्ण एकादशीको नाम विजय हो । भगवान योगेश्वरको पूजा गर्नु । फाल्गुण शुक्ल एकादशीलाई आमलकी भनिन्छ । भगवान पूण्डरीकाक्ष को पूजा गर्नु । चैत्र कृष्ण एकादशीलाई पापमोचनी भनिन्छ । भगवदान गोविन्दको पूजा गर्नु । द्वादशी तिथि:- चैत्र शुक्ल द्वादशीमा मदनव्रत को आचरण गर्नु । कामस्वरुप भगवान अच्यूतको पूजा गर्नु । यसलाई मदन द्वादशी वा भर्तृद्वादशी ्को व्रत भनिन्छ । बैशाख शुक्ल द्वादशी मा भगवान माधवको पूजा गर्नु । जेष्ट शुक्ल द्वादशीमा त्रिविक्रम भगवानको पूजा गर्नु । आषाढ शुक्ल द्वादशीमा भगवान विष्णुको पूजा गर्नु । श्रावण शुक्ल द्वादशीमा भगवान श्रीधरको पूजा गर्नु । भाद्र शुक्ल द्वादशीमा भगवान वामनको पूजा गर्नु । आश्विन शुक्ल द्वादशीमा भगवान पद्यनाभको पूजा गर्नु । कात्र्तिक कृष्ण द्वादशी लाई गोवत्स द्वादशी भनिन्छ । कात्तिक शुक्ल द्वादशीमा भगवान दामोदरको पूजा गर्नु । मार्ग शुक्ल द्वादशीमा परम्उत्तम साध्यव्रत को पालना गर्नु । मनोभाव, प्राण, नर, अपान, वीर्यवान, चिति, हय, नय, हंस, नारायण, विभू, र प्रभू यी १२ साध्यगण हुन । १२ आदित्य – धाता, मित्र, अर्यामा, पूषा, शक्र, अंश, वरुण, भग, त्वस्टा, विवस्वान, सविता र विष्णु यी १२ लाई आदित्य भनिन्छ । माघशुक्ल द्वादशीमा शालीग्रामको पूजा गर्नु । फाल्गुण शुक्ल द्वादशीमा हरिको पूजा आरधना गर्नु । त्रिस्पृशा, उन्मीलनी, पक्षवर्धिनि , वञ्जली, जया, विजया , जयन्ति र अपराजीत आदि नामका द्वादशीलाई महा द्वादशी भनिन्छ । यी द्वादशीहरुमा क्रमश गोविन्द, बासुदेव, संकर्षण, प्रधुम्र, अनिरुद्र , गदाधर, बामन, नारायणहरुको पूजा आराधाना गर्नु संसार बन्धनबाट मुक्ति पाईन्छ । त्रयोदशी तिथि

चंैत्र कृष्ण त्रयोदशी शनिवार सहित छ भने महावारुणी मानिएको छ , यसैमा शुभयोग, शतभिषा नक्षत्र र शनिवार संयुक्त भएमा महा महावारुणीको नाउँबाट प्रख्यात  छ , यसमा गंगा स्नान गर्नु । जेष्ट शुक्ल त्रयोदशीमा दुर्भाग्यशम व्रत गरिन्छ । गंगा नदीमा स्नान गरी मदार, आँक र रातोकनेर जातको वनस्पितीलाई पूजा गर्दै सूर्यलाई नमस्कार गर्नु, यसबाट दुर्भाग्यको नाश हुन्छ । आषाढ शुक्ल त्रयोदशीमा उपबासको साथ शिव र पार्वतीको  पूजा गर्नु । ५ वर्ष सम्म व्रतको पालन गर्दा जन्म , जन्मान्तर सम्म दाम्पत्य सुख प्राप्त भईरहन्छ । भाद्र शुक्ल त्रयोदशीको व्रतलाई गोत्रिरात्र व्रत भनिन्छ । भगवान लक्ष्मीनारायणको पूजा गर्नु । आश्विन शुक्ल त्रयोदशीमा भगवान शंकरले उत्पति गर्नु भएको  अशोक वृक्षको पूजा गर्नु । नारीको कोख सफल हुन्छ ।  कात्तिक कृष्ण त्रयोदशीमा एक समय भोजन गरेर यमराजको पूजा गर्नु । भगवान शिवको प्रार्थाना गर्नु । पौष शुक्ल त्रयोदशीमा अच्यूतको पूजा गर्नु । माघ शुक्ल त्रयोदशीबाट ३ दिन सम्म माघस्नानको व्रत गरिन्छ । माघमा प्रयागतिर्थमा ३ दिन स्नान गर्दा ठूलो पूण्य प्राप्त हुन्छ । फाल्गुण शुक्ल त्रयोदशीमा भगवान जगन्नाथको पूजा गर्नु । हरेक महिनाको त्रयोदशीमा उपवासको साथ भगवान कुवेरको पूजा आरधना गर्नु ,पृथ्वीमा कुवेर सरह धनी हुन पाईन्छ । 

चर्तुुदशी तिथि:- बैशाख कृष्ण चर्तुुदशीमा बेलपत्र सहित शिवलिङ्गको पूजा गर्नु । धन र सन्तान वृद्धिको लागि हरेक महिनाको कृष्ण चर्तुुदशीमा शिवको व्रत गर्नु । बैशाख शुक्ल चर्तुुदशीमा भगवान नृसिहको पूजा गर्नु । ॐ कारेश्वरको यात्रा तथा दर्शन गनु । जेष्ट शुक्ल चर्तुुदशीमा पञ्चाग्नि को सेवन गर्दै साँझमा सूवर्णले सिंगारिएको गाई दान गर्नु , यसलाई रुद्रव्रत भनिन्छ । आषाढ शुक्ल चर्तुुदशीमा ठाउँ र समय अनुकुल उत्पति भएको फूलबाट भगवान शिवको पूजा गर्नु । श्रावण शुक्ल चर्तुुदशीमा पवित्ररोपण गर्नु भाद्र शुक्ल चर्तुुदशीमा भगवान अनन्तको पूजा आरधना गर्नु । आश्विन कृष्ण चर्तुुदशीमा विष, हतियार, जल, अग्नि, सर्प, हिंसक जनावर र बज्रपातबाट मरेका मानिस तथा ब्रह हत्यारा पुरुषको लागि एकोद्धिष्टको विधि अनुसार श्रद्धा गर्नु , उसैदिन तर्पण , गोग्रास, कुकुरबली, काकबली, दिएर आँचमान गरेपछि भाई, बन्धुहरुको साथमा भोजन गर्नु । आश्विन शुक्ल चर्तुुदशीमा धर्मराजको पूजा गर्नु । कात्तिक कृष्ण चर्तुुदशीमा चन्द्रोदयाको समयमा शरीरमा तेल र बुकुवा लगाएर स्नान गर्नु, धर्मराजको पूजा गर्नु, भगवान विश्वनाथ र शिव लिङ्घको पूजा गर्नु , पञ्चगव्य खानु (कपिला गाईको पिसाब, काली गाईको गोवर, सेती गाईको दुध, रातो गाईको दहि, कबरी गाईको घ्यू, र कुशको टुक्रा) मार्ग शुक्ल चर्तुुदशीमा शिवको व्रत गरिन्छ । पौष शुक्ल चर्तुुदशीमा बिरुपाक्ष व्रत गरिन्छ , भगवान शिव कपर्देस्वर को पूजा आरधना गर्नु । माघ कृष्ण चर्तुुदशीमा १४ वटा नाम गरेका यमराज लाई तर्पण गर्नु, खिचडी खानु । फाल्गुण कृष्ण चर्तुुदशीामा गरिने व्रतलाई शिवरात्री व्रत भनिन्छ । दिन र रात निर्जल उपबासबाट भगवान शिव र शिव लिङ्गको पूजा गर्नु । फाल्गुण शुल्क चर्तुुदशीमा दुर्गा देवीको पूजा आराधना गर्नु । चैत्र कृष्ण चर्तुुदशीमा उपबास बसेर केदार तिर्थको जल पिउनाले अश्वमेघ यज्ञको समान फल प्राप्त हुन्छ । पुर्णिमा तिथि:- चैत्रको पूर्णिमा लाई मन्वादि तिथि भनिन्छ , चन्द्रमाको पूजा गर्ने । बैशाख पूर्णिमा मा धर्मराजको व्रत गर्ने । यसमा व्राहणलाई दिइएको दान रुपी द्रव्य दाता लाई नै प्राप्त हुन्छ । जेष्ट पूर्णिमा मा वर वृक्षको साथमा रहने सावित्री देवीको पूजा गर्ने , जसलाई वट सावित्री व्रत भनिन्छ् । व्रतालु नारी चिरकाल सम्म सौभाग्यवती रहनेछिन् । आषाढको पूर्णिमा लाई गोपद्य व्रत भनिन्छ । भगवान श्री हरिको ध्यान गर्नु, जसबाट इहलोक र परलोकमा भोग, ऐश्वर्य प्राप्त हुन्छ । श्रावण पूर्णिमा मा वेदका उपकर्महरुको विषयमा वर्णन गरिन्छ । यर्जुवेदी व्राहण, देवता , ऋषि र पितृलाई तर्पण गर्नु पर्छ । ऋग्वेदी हरुको लागि चर्तु्दशीको दिन, सामवेदी हरुको लागि भाद्र महिनाको हस्ता नक्षत्रमा विधिपुर्वक रक्षा विधान अनुसार गर्नुपर्छ । भाद्र पूर्णिमा मा उमा महेश्वर र देवराज इन्द्रको व्रत गरिन्छ । यसलाई शक व्रत पनि भनिन्छ । धन, धान्य, भोग, ऐश्वर्य को चाहाना राख्ने वाला धनी व्यक्ति ले हरेक वर्ष यो व्रत गर्नु पर्छ । आश्विन पूर्णिमालाई कोजागर व्रत भनिन्छ । रातभर जागृत अवस्थामा रहेर विभिन्न सामाग्रीका साथ लक्ष्मीको पूजा आरधाना गर्ने र वाहणलाई दान दिनु, लक्ष्मीले समृद्धि प्रदान गर्छिन । कार्तिक पूर्णिमा मा वाहण तत्वको प्राप्त गर्न र सम्पूर्ण शत्रु माथि विजय प्राप्त गर्नको लागि कार्तिकेय को दर्शन , पूजा आरधना गरिन्छ । यसै पूर्णिमा मा वृषोसर्ग व्रत र नक्तव्रत गर्दां रुद्रलोक प्राप्त हुन्छ । मार्ग पूर्णिमा मा शान्त स्वाभाव भएको व्राहणलाई ४ सेर नून दान गर्नु, लक्ष्मीको प्यारो भएर दरिद्रको नाश गर्नाको लागि योव्रत गरिन्छ । माघ पूर्णिमा को दिन आफ्नो गच्छे अनुसार तिल, जुत्ता, कपडाको साथ खाद्य सामाग्री हरु दान गर्दा स्वर्गलोकमा सुखी रहन्छ, भगवान शंकरको विधि पूर्वक पूजा गरिन्छ । फाल्गुण पूर्णिमा मा विधि पूर्वक चिता बनाएर होलीका दहन गरिन्छ । औंसी तिथि :- औसी (अमावास्या) को व्रत पितृको लागि अत्यान्त प्यारो हुन्छ । बैशाख औसीमा पितृको पूजा पार्वण विधिबाट धन , वैभव अनुसार श्रद्धा व्राहण भोजन, गाई दान गर्दा सबै औसीको लागि पूण्यदायक हुन्छ । जेष्ट औसिमा व्रहा(सावित्रीको व्रत गरिन्छ । जेष्ट पूर्णिमा को अनुसार समान विधि मानिएको छ । अषाढ, श्रावण र भाद्र महिनाको औसीमा पितृ श्राद्ध , दान, होम र देवताको पूजा गर्दा पुण्य अक्षय हुन्छ । भाद्र औसी लाई कुशेऔसी भनिन्छ । तिलबारीमा उत्पति भएको कुशलाई ब्रहा मन्त्रले आमन्त्रीत गरी हँ फट् को उच्चारणको साथ कुशलाई उखेल्नु र सबै किसिमको कार्यमा प्रयोग गर्नु । ब्रहाको मन्त्र(विरिञ्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठी निसर्गत, नुद ,सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव ।। आश्विनको औसी मा गंगा नदीमा वा गयामा पितृको लागि श्रद्धा तर्पण गर्दा मोक्षदायक हुन्छ । कार्तिकको औसी मा घर आँगन, बगैचा जतासुकै बत्ती बालेर लक्ष्मीको पूजा गर्नु । पशुलाई पनि तेल लगाई पूजा गर्नु । मार्ग औसी मा पितृको श्रद्धा तर्पण ब्रहाण भोजन गराउनु । पौष र माघको औसी मा पितृ श्राद्धको फल अधिक मानिएको छ । फाल्गुणको औसी मा श्रवण व्यातीपात र सूर्यको योग भएमा श्रद्धा र ब्रहाण भोजनबाट गया भन्दा बढी फल प्राप्ति हुन्छ । सोमबारको औसीमा गरिएको दानले सम्पूर्ण फल दिनेवला हुन्छन् । यसमा गरेको श्रद्धाबाट अधिक फल प्राप्त हुन्छ । सबै तिथिमा गरिने व्रतका विशेष विधिहरु हुन्छन् । जसलाई अन्य विभिन्न पुराणहरुमा वर्णन गरिएको छ । व्रत तथा उपवास बस्दा आफ्नो शरीरको भौतिक क्षमता अनुसार निराहार , जलाहार, तथा फलाहार मध्ये जसबाट शरीर र आत्मालाई सन्तुष्टि प्रदान गर्छ , उसैलाई उपयोग गरौंँ। सबै किसीमका तिथिमा देवी तथा देवताहरुको पूजा , अर्चना , होम आदिमा ब्रहणलाई आमन्त्रण गरी विधि पूर्वक आवश्यक सामाग्रीका साथ काम्यकर्मादि गराउनु । शुद्ध आचरणमा बस्नु , कन्या, कुमारी र ब्राहण तथा दीनदुखी लाई यथासक्दो दान दक्षिणा र भोजन गराउनु । एकादशीको व्रत बस्नु पर्दा दशमीको दिन साँझको खाना एक छाक, एकादशीको दिन बिहान र साँझ दुबै छाक खाना नखाई उपबास सहित द्धादशीको दिन मध्यान्नमा व्रतको समाप्ति गरी खाना खानु । दान, दक्षिणा समर्पण गर्दा पारिवारिक आयस्रोत को हैसियतलाई ध्यान दिँदै यथासक्दो पत्रमं, पुस्पमं तथा द्रव्यमं जो सामु छ उसैलाई श्राद्ध भक्तिका साथ स्मर्पण गर्नु । कुनै पनि देवी तथा देवताहरुको पूजा आरधना आदि का काम्यकर्महरु गर्नु पर्दा पुनर्जन्म लिदै जन्म र मरणको चक्रमा रमाउनको लागि सकाम कर्म र पुनर्जन्मको चाहाना नलिने हो , मोक्ष नै प्राप्त गर्ने हो भने निश्काम कर्म भक्ति भावको साथ गर्नुपर्छ । मानिस शक्तिको सन्तान भएको कारण बाट जवानी अवस्थामा जे जस्तो सोचाईमा जीवनको निर्वाहा गरेता पनि वृद्ध अवस्थामा प्रवेश गर्दा हाम्रो मन तथा मस्तिष्कले सँधै शान्तिको नै कामना गरिरहेको हुन्छ । ईश्वरको प्रार्थाना गर्दा कुनै पनि तिथि र मितिको आवश्यकता पर्दैन । समस्त प्राणी जगतमा माया गर्ने र ईश्वर प्रति भक्ति भाव दर्शाउने सज्जनको लागि जीवन भरका सबै समयहरु पूण्यवान तिथिको रुपमा रहेका छन् ।